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Wage-labor and Capital Role

Image source; Anwarul Hoda 
           

आज हम पूँजीवादी उत्पादन के आधिपत्य में रहते हैं, जिसमें आबादी का एक बड़ा और संख्या में दिनोंदिन बढ़नेवाला वर्ग ऐसा है, जो केवल उसी हालत में ज़िन्दा रह सकता है, जबकि वह उत्पादन के साधनों–यानी औज़ारों, मशीनों, कच्चे माल और जीवन-निर्वाह के साधनों–के मालिकों के लिए मज़दूरी के बदले काम करे। उत्पादन की इस प्रणाली के आधार पर मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च जीवन-निर्वाह के साधनों की उस मात्रा के बराबर–या रुपये-पैसे की शक्ल में इन साधनों के दाम के बराबर–होता है, जो मज़दूर को काम करने योग्य बनाने, उसे काम के योग्य बनाये रखने और जब वह बुढ़ापे, बीमारी या मौत के कारण कार्यक्षेत्र से हट जाये, तो उसकी ख़ाली जगह को एक नये मज़दूर से भरने के लिए, अर्थात मज़दूर वर्ग की आवश्यक रूप में वंश-वृद्धि करने के लिए ज़रूरी है। मान लीजिये कि जीवन-निर्वाह के इन साधनों का नक़द दाम औसतन तीन मार्क प्रतिदिन है।
इस प्रकार, हमारे मज़दूर को उस पूँजीपति से, जो उसे काम पर लगाता है, तीन मार्क रोज़ाना की मज़दूरी मिलती है। उसके बदले में पूँजीपति मज़दूर से, मान लीजिये, बारह घण्टे रोज़ काम लेता है और मोटे तौर पर इस तरह हिसाब लगाता है: मान लीजिये कि हमारा मज़दूर एक मिस्त्री है। उसका काम मशीन का एक पुर्ज़ा तैयार करना है, जिसे वह एक दिन में पूरा कर सकता है। इसके लिए कच्चे माल पर–लोहे और पीतल पर, जो पहले से ज़रूरी शक्ल में तैयार कर लिये गये हैं–बीस मार्क की लागत आती है। भाप से चलनेवाले इंजन में जितना कोयला ख़र्च होता है, उसका और इस इंजन में, लेथ में और उन औज़ारों में, जिनको हमारा मज़दूर इस्तेमाल करता है, जितनी घिसाई होती है उसका एक दिन में एक मज़दूर के हिसाब में जो हिस्सा आता है, सब की लागत, मान लीजिये, एक मार्क है। उधर हमने मज़दूर की एक दिन की मज़दूरी तीन मार्क मानी है। इस तरह कुल जोड़ कर हमारे उस मशीन के पुर्ज़े को तैयार करने में चौबीस मार्क लगते हैं। परन्तु पूँजीपति हिसाब लगाता है कि उसे इस पुर्जेके बदले में ख़रीदार से औसतन सत्ताईस मार्क, यानी उसकी लागत से तीन मार्क ज़्यादा मिलेंगे।
ये तीन मार्क, जो पूँजीपति की जेब में चले जाते हैं, कहाँ से आते हैं? क्लासिकीय अर्थशास्त्र का दावा है कि माल औसतन अपने मूल्य पर, अर्थात उस दाम पर बिकता है, जो उसमें लगे श्रम के आवश्यक परिमाण के अनुरूप है। इस तरह, हमारे मशीन के पुर्जे का औसत दाम–जो सत्ताईस मार्क है–उसके मूल्य के, यानी उसमें लगे श्रम के बराबर होना चाहिये। लेकिन सत्ताईस मार्क की इस रक़म में से इक्कीस मार्क के बराबर का मूल्य तो हमारे मिस्त्री के काम शुरू करने के पहले से ही मौजूद था। बीस मार्क कच्चे माल के रूप में था और एक मार्क उस कोयले के रूप में था, जो काम के दौरान ख़र्च हुआ तथा उन मशीनों और औज़ारों के रूप में था, जो पुर्ज़ा तैयार करने में इस्तेमाल किये गये और इस प्रक्रिया में जिनकी काम करने की शक्ति में इस रक़म के बराबर मूल्य की कमी आ गयी। बचते हैं छह मार्क, जो कच्चे माल के मूल्य में नये जुड़ गये हैं। परन्तु ख़ुद हमारे अर्थशास्त्री यह मानकर चल रहे हैं कि ये छह मार्क केवल उस श्रम से ही पैदा हो सकते हैं, जो मज़दूर ने कच्चे माल में जोड़ दिया है। मतलब यह हुआ कि मज़दूर के बारह घण्टे के श्रम से छह मार्क का नया मूल्य पैदा हो गया। लिहाज़ा उसके बाहर घण्टे के श्रम का मूल्य छह मार्क के बराबर बैठता है। और इस प्रकार अन्ततोगत्वा हमने यह पता लगा लिया कि “श्रम का मूल्य” क्या है।
“ज़रा ठहरो!” इतने में हमारा मिस्त्री चिल्लाता है, “छह मार्क? लेकिन मुझे तो सिर्फ़ तीन मार्क मिले हैं! मेरा मालिक तो हलफ़ उठाकर कहता है कि बारह घण्टे की मेरी मेहनत का मूल्य केवल तीन मार्क है और यदि मैं छह मार्क माँगता हूँ, तो वह मुझ पर हँसता है। यह क्या माजरा है?”
यदि हम पहले श्रम के मूल्य को लेकर कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट रहे थे, तो अब हम एक ऐसे अन्तरविरोध में फँसकर रह गये हैं, जिसका कोई समाधान नहीं है। हम श्रम के मूल्य की खोज करने निकले थे और हमें इतना मूल्य मिल गया कि हम उसका उपयोग नहीं कर सकते। मज़दूर के लिए बारह घण्टे के श्रम का मूल्य तीन मार्क है, पूँजीपति के लिए उसका मूल्य छह मार्क है, जिसमें से तीन मार्क वह मज़दूर को बतौर मज़दूरी के देता है और तीन अपनी जेब में रख लेता है। इस प्रकार, श्रम का एक मूल्य नहीं हुआ, दो मूल्य हुए हैं और तुर्रा यह कि दोनों मूल्य बिल्कुल ही अलग!


Image source; Anwarul Hoda
यदि मुद्रा में व्यक्त मूल्य को श्रम-काल में रूप में व्यक्त किया जाये, तो यह अन्तरविरोध और भी बेसिर-पैर का मालूम होता है। बारह घण्टे के श्रम से छह मार्क का नया मूल्य पैदा होता है। अतः तीन मार्क, यानी उस रक़म के बराबर मूल्य, जो मज़दूर को बारह घण्टे के श्रम के एवज मंऔ मिलता है, छह घण्टे में पैदा होता है। मतलब यह कि मज़दूर को बारह घण्टे के श्रम के लिए छह घण्टे के श्रम की उपज के बराबर मूल्य मिलता है। इसलिए, या तो श्रम के दो मूल्य हैं, एक दूसरे का दुगुना, या बारह बराबर है छह के! दोनों सूरतों में हम बिलकुल औंधी खोपड़ी वाली बात पाते हैं।
आप लाख हाथ-पैर मारिये, पर जब तक आप श्रम के क्रय-विक्रय और श्रम के मूल्य की बातें करते रहेंगे, तब तक आप इस गोरखधन्धे से नहीं निकल पायेंगे। अर्थशास्त्रियों के साथ यही बात हुई है। क्लासिकीय अर्थशास्त्र की अन्तिम शाखा, रिकार्डो की शाखा का प्रधानतः इसी अन्तरविरोध को हल न कर सकने के कारण दिवाला निकल गया। क्लासिकीय अर्थशास्त्र एक अन्धी गली में फँस गया था। इस अन्धी गली से निकलने का रास्ता कार्ल मार्क्स ने खोज निकाला।
जिसे अर्थशास्त्री “श्रम” के उत्पादन का ख़र्च समझते थे, वह श्रम का नहीं, बल्कि ख़ुद जीते-जागते मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च है। और यह मज़दूर पूँजीपति के हाथों जो चीज़ बेचता है, वह उसका श्रम नहीं है। मार्क्स ने कहा था: “जैसे ही उसका (मज़दूर का–सं.) श्रम सचमुच आरम्भ होता है, वैसे ही वह मज़दूर की सम्पत्ति नहीं रह जाता और इसलिए तब मज़दूर उसे नहीं बेच सकता। ज़्यादा से ज़्यादा, वह केवल भविष्य का अपना श्रम बेच सकता है, यानी वह एक निश्चित समय में काम की एक विशेष मात्र पूरा करने का बीड़ा उठा सकता है। परन्तु ऐसा करने में वह अपना श्रम नहीं बेचता (बेचने से पहले श्रम करना ज़रूरी है), बल्कि एक निश्चित समय के लिए (जहाँ समयानुसार मज़दूरी मिलती है) या एक निश्चित मात्र में माल तैयार करने के लिए (जहाँ कार्यानुसार मज़दूरी मिलती है) वह श्रम-शक्ति को एक निश्चित रक़म के बदले में पूँजीपति के हाथों में सौंप देता है: वह अपनी श्रम-शक्ति को बेचता है, या किराये पर उठाता है। परन्तु यह श्रम-शक्ति उसके शरीर में बसी हुई है और उससे अलग नहीं की जा सकती। इसलिए श्रम-शक्ति के उत्पादन का ख़र्च वही है, जो ख़ुद मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च है। अर्थशास्त्री जिसे श्रम के उत्पादन का ख़र्च कहते थे, वह वास्तव में मज़दूर के और उसके साथ-साथ उसकी श्रम-शक्ति का उत्पादन का ख़र्च है। और इसलिए श्रम-शक्ति के उत्पादन के ख़र्च से हम श्रम-शक्ति के मूल्य की ओर लौट सकते हैं और यह निर्धारित कर सकते हैं कि विशेष गुणसम्पन्न श्रम-शक्ति के उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से कितना श्रम आवश्यक होगा, जैसा कि श्रम-शक्ति के क्रय-विक्रय वाले अध्याय में मार्क्स ने किया है (‘पूँजी’, खण्ड 1, भाग 2, छठा अध्याय)।
अच्छा, जब मज़दूर अपनी श्रम-शक्ति पूँजीपति के हाथों बेच देता है, यानी जब वह उसे पहले से तय की हुई मज़दूरी–समयानुसार अथवा कार्यानुसार–के एवज़ में पूँजीपति के हवाले करता है, तब क्या होता है? पूँजीपति मज़दूर को अपने वर्कशॉप या कारख़ाने के अन्दर ले जाता है, जहाँ काम के लिए ज़रूरी सभी चीज़ें–कच्चा माल, सहायक सामान (कोयला, रंग, आदि), औज़ार, मशीनें–पहले से मौजूद हैं। यहाँ मज़दूर खटना शुरू करता है। उसकी दिनभर की मज़दूरी तीन मार्क हो सकती है, जैसा कि हमने ऊपर माना था–और इस सम्बन्ध में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह तीन मार्क समयानुसार मज़दूरी के रूप में कमाता है या कार्यानुसार मज़दूरी के रूप में। यहाँ हम फि़र यह मान कर चलते हैं कि बारह घण्टे में मज़दूर अपने श्रम से प्रयुक्त कच्चे माल में छह मार्क का नया मूल्य जोड़ देता है, जिस नये मूल्य को पूँजीपति तैयार माल को बेच कर वसूल करता है। उसमें से वह मज़दूर को उसके तीन मार्क दे देता है और बचे हुए तीन मार्क अपने पास रख लेता है। अब मज़दूर यदि बारह घण्टे में छह मार्क का मूल्य पैदा करता है, तो वह छह घण्टे में तीन मार्क का मूल्य पैदा करता है। इसलिए अपनी मज़दूरी के तीन मार्क का तुल्य मूल्य तो उसने पूँजीपति को तभी चुका दिया, जब वह उसके लिए छह घण्टे काम कर चुका। छह घण्टे के काम के बाद दोनों का हिसाब चुकता हो गया; अब उनका एक दूसरे पर एक पैसा भी बाकी नहीं रहा।
“ज़रा ठहरो!” अब पूँजीपति चिल्ला उठता है, “मैंने मज़दूर को पूरे दिन, यानी बारह घण्टे के लिए काम पर रखा है और छह घण्टे के माने होते हैं सिर्फ़ आधा दिन। इसलिए, जब तक बाक़ी छह घण्टे भी पूरे न हो जायें, तब तक काम करते जाओ! उसके बाद ही हमारा-तुम्हारा हिसाब चुकता होगा!” और सचमुच मज़दूर को उस क़रार को निभाना पड़ता है, जो उसने “स्वेच्छापूर्वक” किया है और जिसके अनुसार वह वादा कर चुका है कि वह छह घण्टे के श्रम की लागत की चीज़ पाने के एवज़ मे पूरे बारह घण्टे तक काम करेगा।
कार्यानुसार मज़दूरी के साथ यही बात है। मान लीजिये कि हमारा यह मज़दूर बारह घण्टे में किसी माल के बारह अदद तैयार करता है। उनमें से हर अदद में लगे हुए कच्चे माल में और मशीनों, आदि की घिसाई में दो मार्क ख़र्च होते हैं और हरेक अदद ढाई मार्क में बिकता है। तब, पहले की शर्तों के आधार पर, पूँजीपति मज़दूर को हर अदद के लिए पचीस फ़ेनिन देगा। इस दर पर बारह अदद के लिए मज़दूर को तीन मार्क मिलेंगे, जिनको कमाने के लिए मज़दूर को बारह घण्टे काम करना पड़ता है। पूँजीपति को बारह अदद के लिए तीस मार्क मिलेंगे। उनमें से चौबीस मार्क कच्चे माल और मशीनों, आदि की घिसाई की मद के लिए निकाल दीजिये। तब बचते हैं छह मार्क, जिनमें से वह तीन मार्क मज़दूर को बतौर मज़दूरी के दे देता है और तीन मार्क अपनी जेब में डाल लेता है। बात बिल्कुल वही है, जो ऊपर कही गयी थी। यहाँ भी मज़दूर अपने लिए, यानी अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य उत्पन्न करने के लिए, छह घण्टे (बारह घण्टों में प्रत्येक में से आधा घण्टा) काम करता है और छह घण्टे पूँजीपति के लिए काम करता है।
अच्छे से अच्छे अर्थशास्त्री “श्रम” के मूल्य से आरम्भ करने पर जिस कठिनाई में फँसकर रह जाते थे, वह “श्रम” के बजाय “श्रम-शक्ति” से आरम्भ करते ही तुरन्त ग़ायब हो जाती है। आजकल के हमारे पूँजीवादी समाज में अन्य किसी भी माल की तरह श्रम-शक्ति भी एक माल है, और फिर भी वह एक अत्यन्त विशिष्ट प्रकार का माल है। उसमें यह विशिष्ट गुण है कि वह मूल्योत्पादक शक्ति है; वह मूल्य का स्रोत है, सचमुच एक ऐसा स्रोत है कि अगर उसका उचित इस्तेमाल किया जाये, तो जितना मूल्य वह स्वयं रखता है उससे भी अधिक मूल्य उत्पन्न कर सकता है। उत्पादन की वर्त्तमान अवस्था में मानव श्रम-शक्ति दिन भर में न केवल स्वयं अपने मूल्य तथा अपनी लागत से अधिक मूल्य पैदा कर देती है, बल्कि हर नयी वैज्ञानिक खोज और हर नये प्राविधिक आविष्कार के साथ उसकी रोज़मर्रा की लागत के मुक़ाबले उसकी रोज़मर्रा की पैदावार की यह बेशी बढ़ती जाती है, अतः श्रम के दिन का वह भाग, जिसमें मज़दूर अपनी दिन भर की मज़दूरी का प्रतिमूल्य उत्पन्न करने के लिए काम करता है, घटता जाता है और, दूसरी ओर, श्रम के दिन का वह भाग, जिसमें मज़दूर को अपना श्रम बिना उजरत लिये पूँजीपति को नज़र कर देना पड़ता है, बढ़ता जाता है।
आजकल के हमारे पूरे समाज का यही आर्थिक ढाँचा है: सभी प्रकार का मूल्य केवल मज़दूर वर्ग ही उत्पन्न करता है। कारण, मूल्य श्रम का ही दूसरा नाम है, वह नाम, जो आजकल के हमारे पूँजीवादी समाज में किसी ख़ास माल के उत्पादन में लगे सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम की मात्रा को दिया जाता है। लेकिन मज़दूरों द्वारा उत्पन्न इन मूल्यों पर मज़दूरों का अधिकार नहीं होता। उन पर अधिकार होता है कच्चे माल, मशीनों, औज़ारों तथा आरक्षित निधियों के मालिकों का, जो मालिकों को मज़दूर वर्ग की श्रम-शक्ति को ख़रीदने का सुयोग प्रदान करते हैं। इसलिए मज़दूर वर्ग जो राशि उपज पैदा करता है, उसमें से उसे केवल एक हिस्सा ही वापस मिलता है। और, जैसा कि हमने अभी देखा, उसका दूसरा हिस्सा, जो पूँजीपति अपने पास रख लेता है, जिसमें से उसे ज़्यादा से ज़्यादा ज़मींदार के साथ हिस्सा बँटाना पड़ता है, हर नये आविष्कार तथा खोज के साथ बढ़ता जाता है, जबकि मज़दूर वर्ग के हिस्से में आनेवाला भाग (प्रति आदमी के हिसाब से) या तो बहुत ही धीरे-धीरे और बहुत ही कम बढ़ता है, या बिल्कुल ही नहीं बढ़ता और बाज़ सूरतों में तो वह घट भी सकता है।
लेकिन ये आविष्कार और खोजें, जो नित्य बढ़ती हुई गति से एक दूसरे से आगे बढ़ रही हैं, मानव-श्रम की उत्पादनशीलता, जो दिन-ब-दिन इतनी तेज़ी के साथ बढ़ रही है कि पहले सोचा भी नहीं जा सकता था, अन्त में जाकर एक ऐसा टकराव पैदा करती हैं, जिसके कारण आज की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विनाश निश्चित है। एक ओर, अकूत धन-सम्पत्ति और मालों की इफ़रात है, जिनको ख़रीदार ख़रीद नहीं पाते; दूसरी ओर, समाज का अधिकांश भाग है, जो सर्वहारा हो गया है, उजरती मज़दूर बन गया है और जो ठीक इसीलिए इन इफ़रात मालों को हस्तगत करने में असमर्थ है। समाज के एक छोटे-से अत्यधिक धनी वर्ग और उजरती मज़दूरों के एक विशाल सम्पत्तिविहीन वर्ग में बँट जाने के परिणामस्वरूप उसका ख़ुद अपनी इफ़रात से गला घुटने लगता है, जबकि समाज के सदस्यों की विशाल बहुसंख्या घोर अभाव से प्रायः अरक्षित है या नितान्त अरक्षित तक है। यह वस्तुस्थिति अधिकाधिक बेतुकी और अधिकाधिक अनावश्यक होती जाती है। इस स्थिति का अन्त अपरिहार्य है। उसका अन्त सम्भव है। एक ऐसी नयी सामाजिक व्यवस्था सम्भव है, जिसमें वर्त्तमान वर्ग-भेद लुप्त हो जायेंगे और जिसमें–शायद एक छोटे-से संक्रमण-काल के बाद, जिसमें कुछ अभाव सहन करना पड़ेगा, लेकिन जो नैतिक दृष्टि से बड़ा मूल्यवान काल होगा–अभी से मौजूद अपार उत्पादक-शक्तियों का योजनाबद्ध रूप से उपयोग तथा विस्तार करके और सभी के लिए काम करना अनिवार्य बनाकर, जीवन-निर्वाह के साधनों को, जीवन के उपभोग के साधनों को तथा मनुष्य की सभी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास और प्रयोग के साधनों को समाज के सभी सदस्यों के लिए समान मात्र में और अधिकाधिक पूर्ण रूप से सुलभ बना दिया जायेगा।



This document is taken from the original work of Karl Marx's book "Wage-labor and Capital Role"

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