Image source; Anwarul Hoda आज हम पूँजीवादी उत्पादन के आधिपत्य में रहते हैं, जिसमें आबादी का एक बड़ा और संख्या में दिनोंदिन बढ़नेवाला वर्ग ऐसा है, जो केवल उसी हालत में ज़िन्दा रह सकता है, जबकि वह उत्पादन के साधनों–यानी औज़ारों, मशीनों, कच्चे माल और जीवन-निर्वाह के साधनों–के मालिकों के लिए मज़दूरी के बदले काम करे। उत्पादन की इस प्रणाली के आधार पर मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च जीवन-निर्वाह के साधनों की उस मात्रा के बराबर–या रुपये-पैसे की शक्ल में इन साधनों के दाम के बराबर–होता है, जो मज़दूर को काम करने योग्य बनाने, उसे काम के योग्य बनाये रखने और जब वह बुढ़ापे, बीमारी या मौत के कारण कार्यक्षेत्र से हट जाये, तो उसकी ख़ाली जगह को एक नये मज़दूर से भरने के लिए, अर्थात मज़दूर वर्ग की आवश्यक रूप में वंश-वृद्धि करने के लिए ज़रूरी है। मान लीजिये कि जीवन-निर्वाह के इन साधनों का नक़द दाम औसतन तीन मार्क प्रतिदिन है। इस प्रकार, हमारे मज़दूर को उस पूँजीपति से, जो उसे काम पर लगाता है, तीन मार्क रोज़ाना की मज़दूरी मिलती है। उसके बदले में पूँजीपति मज़दूर से, मान लीजिये, बारह घण्टे रो